In Hinduism, the goddess Tara is the second of the Dasa (ten) Mahavidyas or "Great Wisdom goddesses", and is a form of Shakti, the tantric manifestations of the goddess. The word 'Tara' is derived from the Sanskrit root 'tr', meaning to cross. In many other contemporary Indian languages, the word 'tara' also means star.
की तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने राजा को दो पुत्रियाँ प्राप्त होने का वरदान दिया।
कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्या ने जन्म लिया, राजा ने अपने राज दरबारियों को बुलाया, पण्डितों व ज्योतिषों को बुलाया और बच्ची की जन्म कुण्डली तैयार करने का आदेश दिया।पण्डित तथा ज्योतिषियों ने उस बच्ची की जन्म कुण्डली तैयार की और कहा कि वो कन्या तो साक्षात देवी है। यह कन्या जहाँ भी कदम रखेगी, वहाँ खुशियां ही खुशियां होंगी। कन्या भी भगवती की पुजारिन होगी। उस कन्या का नाम तारा रखा गया। थोड़े समय बाद राजा के घर वरदान के अनुसार एक और कन्या ने जन्म लिया। मंगलवार का दिन था।
पण्डितों और ज्योतिषियों ने जब जन्म कुण्डली तैयार की तो उदास हो गये। राजा ने उदासी का कारण पूछा तो वे कहने लगे की वह कन्या राजा के लिये शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्योतिषियों से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किये हैं जो कि इस कन्या ने उनके घर में जन्म लिया ? उस समय ज्योतिषियों ने ज्योतिष से अनुमान लगाकर बताया कि वे दोनो कन्याएं जिन्होंने उनके घर में जन्म लिया था, पूर्व जन्म में देवराज इन्द्र के दरबार की अप्सराएं थीं। उन्होंने सोचा कि वे भी मृत्युलोक में भ्रमण करें तथा देखें कि मृत्युलोक में लोग किस तरह रहते हैं। दोनो ने मृत्युलोक पर आकर एकादशी का व्रत रखा। बड़ी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूक्मन। बड़ी बहन तारा ने अपनी छोटी बहन से कहा कि रूक्मन आज एकादशी का व्रत है, हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना।अतः वो बाजार जाकर फल कुछ ले आये। रूक्मन बाजार फल लेने के लिये गई। वहां उसने मछली के पकोड़े बनते देखे। उसने अपने पैसों के तो पकोड़े खा लिये तथा तारा के लिये फल लेकर वापस आ गई और फल उसने तारा को दे दिये। तारा के पूछने पर उसने बताया कि उसने मछली के पकोड़े खा लिये हैं।
तारा ने उसको एकादशी के दिन माँस खाने के कारण शाप दिया कि वो निम्न योनियों में गिरे। छिपकली बनकर सारी उम्र ही कीड़े-मकोड़े खाती रहे।
उसी देश में एक ऋषि गुरू गोरख अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके शिष्यों में एक शिष्य तेज स्वभाव का तथा घमण्डी था। एक दिन वो घमण्डी शिष्य पानी का कमण्डल भरकर खुले स्थान में, एकान्त में, जाकर तपस्या पर बैठ गया। वो अपनी तपस्या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्यासी कपिला गाय आ गई। उस ऋषि के पास पड़े कमण्डल में पानी पीने के लिए उसने मुँह डाला और सारा पानी पी गई। जब कपिता गाय ने मुँह बाहर निकाला तो खाली कमण्डल की आवाज सुनकर उस ऋषि की समाधि टूटी। उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था।
ऋषि ने गुस्से में आ उस कपिला गाय को बहुत बुरी तरह चिमटे से मारा; जिससे वह गाय लहुलुहान हो गई। यह खबर गुरू गोरख को मिली तो उन्होंने कपिला गाय की हालत देखी। उन्होंने अपने उस शिष्य को बहुत बुरा-भला कहा और उसी वक्त आश्रम से निकाल दिया। गुरू गोरख ने गौ माता पर किये गये पाप से छुटकारा पाने के लिए कुछ समय बाद एक यज्ञ रचाया। इस यज्ञ का पता उस शिष्य को भी चल गया, जिसने कपिला गाय को मारा था। उसने सोचा कि वह अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। यज्ञ शुरू होने उस शिष्य ने एक पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्डारे में फेंक दिया; जिसका किसी को पता न चला। वह छिपकली जो पिछले जन्म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शाप को स्वीकार कर छिपकली बनी थी, सर्प का भण्डारे में गिरना देख रही थी।
उसे त्याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्डारा होने तक घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगो के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्योछावर कर लेने का मन ही मन निश्चय किया। जब खीर भण्डारे में दी जाने वाली थी, बाँटने वालों की आँखों के सामने ही वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुये खीर की कढ़ाई को खाली करने लगेतो उन्होंने उसमें मरे हुये सांप को देखा। तब जाकर सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपस्थित सभी सज्जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्तम मनुष्य जन्म प्राप्त हो तथा अन्त में वह मोक्ष को प्राप्त करे।
तीसरे जन्म में वह छिपकली राजा स्पर्श के घर कन्या के रूप में जन्मी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्य जन्म लेकर तारामती नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र के साथ विवाह किया।
राजा स्पर्श ने ज्योतिषियों से कन्या की कुण्डली बनवाई ज्योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्या आपके लिये हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। अत: वे उसे मरवा दें। राजा बोले कि लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। वे उस पाप का भागी नहीं बन सकते।
तब ज्योतिषियों ने विचार करके राय दी कि राजा उसे एक लकड़ी के सन्दूक में बन्द करके ऊपर से सोना-चांदी आदि जड़वा दें और फिर उस सन्दूक के भीतर लड़की को बन्द करके नदी में प्रवाहित करवा दें। सोने चांदी से जड़ा हुआ सन्दूक अवश्य ही कोई लालच में आकर निकाल लेगा और राजा को कन्या वध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ सन्दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया तो वह सन्दूक को नदी से बाहर निकाल लाया।
उसने जब सन्दूक खोला तो सोने-चांदी के अतिरिक्त अत्यन्त रूपवान कन्या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्नी को वह कन्या लाकर दी तो पत्नी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्तनो में दूध उतर आया, पति-पत्नी दोनो ने प्रेम से कन्या का नाम रूक्को रख दिया। रूक्को बड़ी हुई तो उसका विवाह हुआ। रूक्को की सास महाराजा हरिश्चन्द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई तो तो रूक्को महाराजा हरिश्चन्द्र के घर काम करने के लिये पहुँच गई। महाराज की पत्नी तारामती ने जब रूक्को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्म के पुण्य से उसे पहचान गई। तारामती ने रूक्को से कहा की वो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूक्को बोली कि वो एक नीचि जाति की भंगिन है, भला वह रानी के पास कैसे बैठ सकती थी ?
तब तारामती ने उसे बताया कि वह उसके पूर्व जन्म के सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने के कारण उसे छिपकली की योनि में जाना पड़ा जो होना था। जो होना था वो तो हो चुका। अब उसे अपने वर्तमान जन्म को सुधारने का उपाय करना चाहिये और भगवती वैष्णों माता की सेवा करके अपना जन्म सफल बनाना चाहिये। यह सुनकर रूक्को को बड़ी प्रसन्नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो रानी ने बताया कि वैष्णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन व जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूर्ण होती हैं।
रूक्को ने प्रसन्न होकर माता की मनौती मानते हुये कहा कि यदि माता की कृपा से उसे एक पुत्र प्राप्त हो गया तो वो माता का पूजन व जागरण करायेगी। माता ने प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्यन्त सुन्दर बालक ने जन्म लिया; परन्तु दुर्भाग्यवश रूक्को को माता का पूजन-जागरण कराने का ध्यान न रहा। जब वह बालक पांच वर्ष का हुआ तो एक दिन उसे माता (-चेचक) निकल आई। रूक्को दु:खी होकर अपने पूर्वजन्म की बहन तारामती के पास आई और बच्चे की बीमारी का सब वृतान्त कह सुनाया। तब तारामती ने पूछा कि उससे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई । इस पर रूक्को को छह वर्ष पहले की बात याद आ गई। उसने अपराध स्वीकार कर लिया। उसने फिर मन में निश्चय किया कि बच्चे को आराम आने पर जागरण अवश्य करवायेगी।
भगवती की कृपा से बच्चा दूसरे दिन ही ठीक हो गया। तब रूक्को ने देवी के मन्दिर में ही जाकर पंडित से कहा कि उसे अपने घर माता का जागरण करना है, अत: वे मंगलवार को उसके घर पधार कर कृतार्थ करें। पंडित जी बोले कि वहीं पांच रूपये देती जाये। पण्डित जी उसके नाम से मन्दिर में ही जागरण करवा देंगे।क्योकि वह एक नीच जाति की स्त्री है, इसलिए वे उसके घर में जाकर देवी का जागरण नहीं कर सकते। रूक्को ने कहा कि माता के दरबार में तो ऊंच-नीच का कोई विचार नहीं होता। वे तो सब भक्तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। अत: उनको कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इस पर पंडित ने आपस में विचार करके कहा कि यदि महारानी उसके जागरण में पधारें; तब तो वे भी स्वीकार कर लेंगे।
यह सुनकर रूक्को महारानी के पास गई और सब वृतान्त कर सुनाया। तारामती ने जागरण में सम्मिलित होना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जिस समय रूक्को पंडितो से यह कहने के लिये गई महारानी जी जागरण में आवेंगी, उस समय सेन नाम का नाई वहाँ मौजूद था। उसने सब सुन लिया और महाराजा हरिश्चन्द्र को जाकर सूचना दी। राजा को सेन नाई की बात पर विश्वास नहीं हुआ कि महारानी भंगियों के घर जागरण में नहीं जा सकती हैं।फिर भी परीक्षा लेने के लिये उसने रात को अपनी उंगली पर थोड़ा सा चीरा लगा लिया, जिससे नींद न आए।
रानी तारामती ने जब देखा कि जागरण का समय हो रहा है, परन्तु महाराज को नींद नहीं आ रही तो उसने माता वैष्णों देवी से मन ही मन प्रार्थना की कि माता, किसी उपाय से राजा को सुला दें ताकि वो जागरण में सम्मिलित हो सके। राजा को नींद आ गई, तारामती रोशनदान से रस्सा बांधकर महल से उतरीं और रूक्को के घर जा पहुंची। उस समय जल्दी के कारण रानी के हांथ से रेशमी रूमाल तथा पांव का एक कंगन रास्ते में ही गिर पड़ा, उधर थोड़ी देर बाद राजा हरिश्चन्द्र की नींद खुल गई। वह भी रानी का पता लगाने निकल पड़े। उन्हें मार्ग में रानी का कंगन व रूमाल दिखा। राजा ने दोनो चीजें रास्ते से उठाकर अपने पास रख लीं और जागरण हो रहा था, वहां जा पहुँचे और वह एक कोने में चुपचाप बैठकर दृश्य देखने लगा। जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता की अरदास की, उसके बाद प्रसाद बांटा गया, रानी तारामती को जब प्रसाद मिला तो उसने झोली में रख लिया। यह देख लोगों ने पूछा कि उन्होंने वह प्रसाद क्यों नहीं खाया ?
यदि रानी प्रसाद नहीं खाएंगी तो कोई भी प्रसाद नहीं खाएगा। रानी बोली कि पंडितों ने प्रसाद दिया, वह उन्होंने महाराज के लिए रख लिया था। अब उन्हें उनका प्रदान करें। प्रसाद ले तारा ने खा लिया। इसके बाद सब भक्तों ने माँ का प्रसाद खाया, इस प्रकार जागरण समाप्त करके, प्रसाद खाने के पश्चात् रानी तारामती महल की तरफ चलीं।
तब राजा ने आगे बढ़कर रास्ता रोक लिया और कहा कि रानी ने नीचों के घर का प्रसाद खाकर अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया था। अब वे उन्हें अपने घर कैसे रखें ? रानी ने तो कुल की मर्यादा व प्रतिष्ठा का भी ध्यान नहीं रखा। जो प्रसाद वे अपनी झोली में राजा के लिये लाई थीं; क्या उसे खिला कर वे राजा को भी अपवित्र करना चाहती थीं ?
ऐसा कहते हुऐ जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्थान पर उसमें चम्पा, गुलाब, गेंदे के फूल, कच्चे चावल और सुपारियां दिखाई दीं यह चमत्कार देख राजा आश्चर्यचकित रह गया, राजा हरिश्चन्द्र रानी तारा को साथ ले महल लौट आए, वहीं रानी ने ज्वाला मैया की शक्ति से बिना माचिस या चकमक पत्थर की सहायता के राजा को अग्नि प्रज्वलित करके दिखाई, जिसे देखकर राजा का आश्चर्य और बढ़ गया।
रानी बलीं कि प्रत्यक्ष दर्शन पाने के लिऐ बहुत बड़ा त्याग होना चाहिए। यदि आप अपने पुत्र रोहिताश्व की बलि दे सकें तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन हो जाएंगे। राजा के मन में तो देवी के दर्शन की लगन हो गई थी, राजा ने पुत्र मोह त्यागकर रोहिताश्व का सिर देवी को अर्पण कर दिया। ऐसी सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास देख दुर्गा माता, सिंह पर सवार हो उसी समय प्रकट को गईं और राजा हरिश्चन्द्र दर्शन करके कृतार्थ हो गए, मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया।
चमत्कार देख राजा हरिश्चन्द्र गदगद हो गये, उन्होंने विधिपूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा माँगी। सुखी रहने का आशीर्वाद दे माता अन्तर्ध्यान हो गईं। राजा ने तारा रानी की भक्ति की प्रशंसा करते हुऐ कहा कि वे रानी के आचरण से अति प्रसन्न हैं। उनके धन्य भाग, जो वे उसे पत्नी रूप में प्राप्त हुईं।
आयुपर्यन्त सुख भोगने के पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारा एवं रूक्मन भंगिन तीनों ही मनुष्य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्त हुये।
माता के जागरण में तारा रानी की कथा को जो मनुष्य भक्तिपूर्वक पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, सुख-समृद्धि बढ़ती है, शत्रुओं का नाश होता है।इस कथा के बिना माता का जागरण पूरा नहीं माना जाता।
King Sparsh was childless after years of marriage. He conducted a Tapa "religious meditation" to appease Devi Mata with hopes of gaining a boon. Mata, eventually, was pleased and blessed that Sparsh shall father two daughters. Soon, his wife was pregnant and in due course gave birth to a beautiful girl. Good omens followed this child. Entire kingdom witnessed divine bliss and prosperity. King's Guru proclaimed that this girl is very lucky as she carries Devi's blessings. She was named Tara. In a few years, king father another daughter. This girl brought forth terrible omens and ill feeling. The guru informed that this carries a curse of past life. King and queen were devastated and refused to believe this. Then, the guru told their past life story.
Long time ago, two sisters were observing a fast of Ekadashi (11th day after new moon). Both sisters were very spiritual and traditionally educated by their parents. While the elder sister had underwent many such fasts, for the younger one this was first experience. Whole day felt much longer to the young girl. In the evening, elder sister gave younger one some money and asked he to buy Puja material from nearby shop. While returning, the famished girl saw a stall of rice balls. She could not control any longer and ate a small piece. However, she was overcome with guilt and threw away remaining food. On returning home, she confessed to her elder sister who consoled her and instructed to apologize to the goddess. What these girls didn't know was that rice was forbidden during Ekadashi fasting. A terrible punishment, as a result of this error, was given to the little sister. She was cursed to be born as a lizard and eat insects in next life. She died instantly and was born as lizard. The elder sister could not accept this. She apologized on behalf of her sister and pleaded to the goddess. Moved by her plight, the Goddess blessed that the girl born as lizard will retain her good educations and spiritual learning. Thus, she will be able to conduct good karma in her life as lizard and transform to human form again. Elder sister worshiped to the goddess all her life and accumulated great karma. She went on to become Tara in her next life.
The little girl, born as lizard, who had retained her education from past life, as divine blessing, went to live in a hermitage where regular yagna and puja were conducted. Very old and learned sage presided this ashram and educated young disciples. One such disciple, who was highly skilled and gifted, had major anger issues. When angered, he became violent and abusive. All his learning was forgotten in fits of anger. The sage tried everything, even reprimanded him but the disciple could not let go of his anger. During one of his anger fits, he badly beat a cow for manuring where he was praying. The sage was hurt by this and exiled this disciple from hermitage. He announced a yagna as a repentance for deed done by his disciple. The disciple on the other hand was furious on his guru and lost all sense of reason. He decided to humiliate the old sage by corrupting the yagna. On completion of yagna, nearby villagers were invited to join the feast. The angry disciple turned himself into a hawk, grabbed a venomous snake and flew over the kitchen. He dropped the snake in vessel of khir (rice pudding) when no one was around.
The young girl, in form of a lizard, witnessed this. She knew that instant death awaited anyone who would eat the khir. She wanted to cry out and warn but could not. So, she took a drastic step. She jumped in to khir the moment cooks came back thus sacrificed her life to save many. Cooks however, were revolted and informed other sages. These sages cursed the lizard that her next life will be of that of a lowest caste and she will clean waste from other's house as a punishment of her crime. Cooks took the vessel of khir in jungle, dig a hole and threw it in. At the bottom, they saw dead snake. They went and inform old guru who instantly realized the whole story. He was filled with regret that a good deed had earned the lizard a curse. However, he requested the goddess to make amends. The Goddess, in reply to his request, announced that the lizard will be born as a princess but will be raised by shudra (low caste). In that life, she shall be able to acquire enough good karma to ensure moksha (liberation from rebirth). Hence, that lizard, who was the younger sister, was born as younger daughter to king Sparsh.
Hearing this story, king was saddened but resigned to fate. He asked for guidance from his guru. Guru asked him to craft a basket of wood, cover it with gems and gold, put the child in it and drop it in river. King followed these instructions. The girl, in gold & gems embedded wooden basked drifted to a distant shore. A bramhin was purifying himself in the riven and saw the basket. He was tempted by gold and gems but could not retrieve the basket on his own. Hence, a shudra was called and asked to do so. The bramhin promised that the shudra could keep whatever was inside the basket. The shudra retrived it and handed it to bramhin. He was delighted beyond measure as the basket held what he craved the most, a child. Taking the girl child from basket he ran home and shared the whole story with his wife. Together they raised this girl named Rukmin.
Tara and Rukmin both grew up at different households with different level of education but both worshiped the Goddess reverently. In time, both girls married to same city. Tara was queen while Rukmin was married to the stableboy. She joined as chambermaid to the new queen. Both of them recognized each other the instant they met. Tara embraced her little sister and kept her close. But none could share this secret with anyone for they were afraid of consequence. One day Tara organized jag-raata "night long session of Devi's bhajan" in honor of goddess. Rukmin, who was with her, was very moved and promised to conduct similar jag-raata if she was blessed with child. Goddess was pleased with Rukmin and granted her wish. Rukmin however forgot the promise made to the goddess. Six years passed but Rukmin did not organize jag-raata. Her only son fell terribly ill and could not be restored to health by any means. Rukmin was devastated and went to her elder sister Tara. Tara prayed to goddess for health of her sister's son. Goddess informed Tara about the mistake of Rukmin. Realizing it, Rukmin swore that she will organize the jag-raata on same night.
Rukmin went from one bramhin to another, one temple to other but nobody was ready to perform the ceremony. An old bramhin, told her that no one would come to her place as she was a shudra and guided that she should drop the money at goddess temple where jag-raata could be held on her behalf. Rukmin could not accept that. Distraught, she went to Tara and asked her help. Tara promised Rukmin that she would go to her home and conduct the prayers herself in honor of goddess. Rukmin went home to prepare for the puja. Tara's husband, the king, wasn't happy with idea of his wife going in to a shudra household. He, in order to stop her subtly, told Tara that he was ill and wanted to rest in her lap. As a wife she couldn't refuse him but her mind was occupied in silent prayers so that she could fulfill her promise to Rukmin. As evening passed, king fell into deep sleep. Tara tried to go out but realized that soldiers were posted all over castle to stop her. She saw a high window in the room as only way out. She felt light as a feather when she dangles out of window through silk sari. She jumped to the ground and ran towards Rukmin's home. Bandits tried to stop her, pull at her clothes and jewelry but failed. One bandit got hold of her bangle, another her scarf while one caught her earring. All of them turned blind and were glued to the same stop. Tara reached and started prayers at her sister's home.
King woke up suddenly and searched for his wife. Understanding the situation, he immediately went to Rukmin's home with a platoon. Prayers however had ended by then so the king returned with his wife to their palace. Rukmin had fulfilled her promise to Devi and appeased her. She waited for liberation, her moksha.
Back in palace, Tara had a huge fight with the king. He argued that she had polluted herself by entering a household of a person of low caste. Tara identified Rukmin as her younger sister and told him the whole story. King was disbelieving and said how could you remember so much of past lives. "Through the grace of Devi Maa" she replied. King didn't believe her and asked for proof of the power of Devi. Tara told that such proves require a great sacrifice. That king will have to present the Devi what he loved most. King agreed and Tara started the Puja. King sacrificed his favorite pet in honour of Devi. The meat however turned stale when put in front of her. Tara told the king to think again about what he loved most and only that will be accepted as sacrifice by the Devi. King went on to sacrificing all his favorite pets, his best horse, even his most liked concubine but each time the sacrifice was rejected. Tara taunted him that he didn't have courage to realize and sacrifice what he most truly loved. King knew the answer by now, he went to his son's room with a sword. King cut his son into pieces, put them on a plate and covered it with red cloth. Sacrifice of the king was accepted now. King was distraught with grief and refused to partake the Prasad of his son's flesh. He ran back to his room and saw that his son was sitting on the bed. The king was confused and thought he was hallucinating. Tara told him it was not the case. They both asked their son about what happened to which he claimed to have no recollection. "I was playing in lap of a beautiful mother and she fed me many sweets", is all the young prince remembered. King bowed his head to the Devi Maa and together him and his queen continued to pray to her till the end of their days.
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