Rohini Vrat is an important vrat in Jain religion. This vrat is mainly observed by women for the long life of their husbands. In this vrat Lord Vasupujya should be worshiped. Rohini vrat is observed twelve times in a year.
जम्बूद्वीप के इसी भरत क्षेत्र में कुरुजांगल देश है, इसमें हस्तिनापुर नाम का सुन्दर नगर है। किसी समय यहाँ वीतशोक राजा राज्य करते थे। इनकी रानी का नाम विद्युत्प्रभा था। इन दोनों के एक अशोक नाम का पुत्र था। इसी समय अंग देश की चम्पा नगरी में मघवा नाम के राजा राज्य करते थे, इनकी श्रीमती नाम की रानी थी। श्रीमती के आठ पुत्र और रोहिणी नाम की एक कन्या थी। यौवन को प्राप्त हुई रोहिणी ने एक समय आष्टान्हिक पर्व में उपवास करके मंदिर में पूजा करके सभा भवन में बैठे हुए माता-पिता को शेषा दी। पिता ने पुत्री को युवती देखकर कुछ क्षण मंत्रशाला में मंत्रियों से मंत्रणा की, पुन: स्वयंवर की व्यवस्था की। स्वयंवर में रोहिणी ने हस्तिनापुर के राजकुमार के गले में वरमाला डाल दी। कालांतर में वीतशोक महाराज ने दीक्षा ले ली और अशोक महाराज बहुत न्यायनीति से राज्य का संचालन कर रहे थे। रोहिणी महादेवी के आठ पुत्र और चार पुत्रियाँ थीं। किसी समय महाराज अशोक महादेवी रोहिणी के साथ महल की छत पर बैठे हुए विनोद गोष्ठी कर रहे थे। पास में वसंततिलका धाय बैठी हुई थी। जिसकी गोद में रोहिणी का छोटा बालक लोकपाल खेल रहा था। इसी समय रोहिणी ने देखा कि कुछ स्त्रियाँ गली में अपने बालों को बिखेरे हुए एक बालक को लिए छाती, सिर, स्तन और भुजाओं को वूâटती-पीटती हुई चिल्ला-चिल्ला कर रो रही हैं। तब रोहिणी ने अपनी वसंततिलका धात्री से कुतूहलवश पूछा-हे माता! नृत्यकला में विशारद लोग सिग्नटक, भानी, छत्र, रास और दुंबिली इन पाँच प्रकारों के नाटकों का अभिनय करते हैं। भरत महाराज द्वारा प्रणीत इन पाँच प्रकारों के नाटकों के सिवाय ये स्त्रियाँ सादिकुट्टन रूप इस कौन से नृत्य का अभिनय कर रही है? इस नाटक में सात स्वर, भाषा और मूच्र्छनाओं का भी पता नहीं चल रहा है। तुम इस नाटक का नाम तो मुझे बताओ। रोहिणी के इस भोलेपन के प्रश्न को सुनकर धाय बोली-पुत्री! कुछ दु:खी स्त्रियाँ महान् शोक और दु:ख मना रही हैं। रोहिणी ने जब धात्री के मुख से ‘शोक और ‘दुख’ये दो शब्द सुने, तब उसने पूछा-अम्ब! यह बताओ कि यह ‘शोक और ‘दुख क्या वस्तु है? तब धात्री ने रुष्ट होकर जवाब दिया-सुन्दरि! क्या तुम्हें उन्माद हो गया है? पाण्डित्य और ऐश्वर्य क्या ऐसा ही होता है? क्या रूप से पैदा हुआ गर्व यही है? जो कि तुम ‘शोक और ‘दुख को नहीं जानती हो और रुदन को नाटक-नाटक बक रही हो? क्या तुमने इसी क्षण जन्म लिया है? क्रोधपूर्ण बात सुनकर रोहिणी बोली-भद्रे! आप मेरे ऊपर क्रोध मत कीजिए। मैं गन्धर्वविद्या, गणितविद्या, चित्र, अक्षर, स्वर और चौंसठ विज्ञानों तथा बहत्तर कलाओं को ही जानती हूँ। मैंने आज तक इस प्रकार का कलागुण न देखा है और न मुझसे किसी ने कहा है। यह आज मेरे लिए अदृष्ट और अश्रुतपूर्व है। इसीलिए मैंने आपसे यह पूछा है। इसमें अहंकार और पांडित्य की कोई बात नहीं। पुन: धात्री बोली-वत्से! न यह नाटक का प्रयोग है और न किसी संगीत भाषा का स्वर है किन्तु किसी इष्ट बंधु की मृत्यु से रोने वालों का जो दु:ख है, वही शोक कहलाता है। धात्री की बात सुनकर रोहिणी पुन: बोली-भद्रे! यह ठीक है, परन्तु मैं रोने का भी अर्थ नहीं जानती, सो उसे भी बताइये। रोहिणी के इस प्रश्न के पूरा होते ही राजा अशोक बोला-प्रिये! शोक से जो रुदन किया जाता है, उसका अर्थ मैं बतलाता हूँ। इतना कहकर राजा ने लोकपाल कुमार को रोहिणी की गोद से लेकर देखते ही देखते राजभवन के शिखर के नीचे फेंक दिया। लोकपाल कुमार अशोक वृक्ष की चोटी पर गिरा, उसी समय नगर देवताओं ने आकर दिव्य सिंहासन पर उस बालक को बिठाया और क्षीरसागर से भरे हुए एक सौ कलशों से उसका अभिषेक किया और उसे आभरणों से भूषित कर दिया। अशोक महाराज और रोहिणी ने जैसे ही नीचे नजर डाली तो बहुत ही विस्मित हुए। उस समय सभी लोगों ने इसे रोहिणी के पूर्वकृत पुण्य का ही फल समझा। हस्तिनापुर के बाहर अशोकवन में अतिभूतितिलक, महाभूतितिलक, विभूतितिलक और अंबरतिलक नामक चार जिनमंदिर क्रमश: चारों दिशाओं में थे। एक बार रूपकुंभ और स्वर्णकुंभ नाम के दो चारण मुनि विहार करते हुए हस्तिनापुर में आकर पूर्व दिशा के जिनमंदिर में ठहर गये। वनपाल द्वारा मुनि आगमन का समाचार ज्ञात होने पर परिजन और पुरजन सहित अशोक महाराज मुनिराज की वंदना के लिए वहाँ पहुँचे। वंदना भक्ति के अनंतर राजा ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! मैंने और मेरी पत्नी रोहिणी ने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्य विशेष किया है, सो कृपा कर बतलाइये। मुनिराज ने कहा-हे राजन्! इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में सौराष्ट्र देश है। इसमें ऊर्जयंतगिरि के पश्चिम में एक गिरि नाम का नगर है। इस नगर के राजा का नाम भूपाल और रानी का नाम स्वरूपा था। राजा के एक गंगदत्त राजश्रेष्ठी था, जिसकी पत्नी का नाम सिंधुमती था, इसे अपने रूप का बहुत ही घमण्ड था। किसी समय राजा के साथ वनक्रीड़ा के लिए जाते हुए गंगदत्त ने नगर में आहारार्थ प्रवेश करते हुए मासोपवासी समाधिगुप्त मुनिराज को देखा अैर सिंधुमती से बोला-प्रिये! अपने घर की तरफ जाते हुए मुनिराज को आहार देकर तुम पीछे से आ जाना। सिंधुमती पति की आज्ञा से लौट आई किन्तु मुनिराज के प्रति तीव्र क्रोध भावना हो जाने से उसने कड़वी तूमड़ी का आहार मुनि को दे दिया। मुनिराज ने हमेशा के लिए प्रत्याख्यान ग्रहण कर सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग कर स्वर्गपद को प्राप्त कर लिया। जब राजा वन से वापस लौट रहे थे कि विमान में स्थित कर मुनि को ले जाते हुए देखकर मृत्यु का कारण पूछा। तब किसी व्यक्ति ने सारी घटना राजा को सुना दी। उस समय राजा ने सिंधुमती का मस्तक मुण्डवाकर उस पर पाँच बेल बंधवाये, गधे पर बिठाकर उसके अनर्थ की सूचना नगर में दिलाते हुए उसे बाहर निकाल दिया। उसके बाद उसे उदुम्बर कुष्ठ हो गया और भयंकर वेदना से सातवें दिन ही मरकर बाईस सागर पर्यन्त आयु धारण कर छठे नरक में उत्पन्न हुई। यह पापिनी क्रम से सातों ही नरकों में भ्रमण करते हुए कदाचित् तिर्यंचगति में आकर दो बार कुत्ती हुई, सूकरी, शृगाली, चुहिया, गोंच, हथिनी, गधी और गौणिका हुई। अनंतर इसी हस्तिनापुर के राजश्रेष्ठी धनमित्र की पत्नी धनमित्रा से पूतिगंधा पुत्री के रूप में जन्मी, दुर्गंधा के समान उसके शरीर से भयंकर दुर्गंधि आ रही थी जिससे कि उसके पास किसी का भी बैठना कठिन था। उसी शहर के वसुमित्र सेठ का एक श्रीषेण पुत्र था, जो सप्त व्यसनी था। एक दिन चोरी कर्म से कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाकर शहर से बाहर निकाला जा रहा था। उस समय धनमित्र ने कहा कि-श्रीषेण! यदि तुम मेरी कन्या के साथ विवाह करना मंजूर करो तो मैं तुम्हें इस बंधन से मुक्त करा सकता हूँ। उसके मंजूर करने पर सेठ ने उसे बंधनमुक्त कराकर उसके साथ अपनी दुर्गन्धा कन्या का विवाह कर दिया। किन्तु विवाह के बाद जैसे-तैसे एक रात दुर्गन्धा के पास बिताकर मारे दुर्गन्ध के घबराकर वह श्रीषेण अन्यत्र भाग गया। बेचारी दुर्गन्धा पुन: पिता के घर पर ही रहते हुए अपनी निंदा करते हुए दिन व्यतीत कर रही थी। एक दिन उसने सुव्रता आर्यिका को अपने पितृगृह में आहार दिया। अनन्तर पिहितास्रव नामक चारणमुनि अमितास्रव मुनिराज के साथ वन में आये। वहाँ पर सभी श्रावकों ने गुरु वंदना करके उपदेश सुना। पूतिगन्धा ने भी गुरु का उपदेश सुनकर कुछ क्षण बाद प्रश्न किया-हे भगवन्! मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पाप किया है जिससे मेरा शरीर महा दुर्गन्धियुक्त है। मुनिराज ने कहा-पुत्री! सुनो, तुमने िंसधुमती सेठानी की अवस्था में मुनिराज को कड़वी तूमड़ी का आहार दिया था। उसके फलस्वरूप बहुत काल तक नरक और तिर्यंचों के दुख भोगे हैं और अभी भी पाप के शेष रहने से यह स्थिति हुई है। सारी घटना सुनकर पूतिगंधा ने कहा-हे गुरुदेव! अब मुझे कोई ऐसा उपाय बतलाइये जिससे पापों का क्षय हो। मुनिराज ने कहा-पुत्री! अब तुम सभी पापों से मुक्त होने के लिए रोहिणी व्रत करो। रोहिणी व्रत विधि—जिस दिन चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो उस दिन चतुराहार त्यागकर उपवास करना चाहिए और वासुपूज्य जिनेन्द्र की पूजा करके उनका जाप करना चाहिए। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय नम:। यह रोहिणी नक्षत्र सत्ताईस दिन में आता है। इस तरह सत्ताइसवें दिन उपवास करते हुए पाँच वर्ष और नव दिन में सरसठ उपवास हो जाते हैं। अनन्तर उद्यापन में वासुपूज्य भगवान की महापूजा कराके रोहिणी व्रत संबंधी पुस्तक लिखाकर (छपाकर) और भी अन्य ग्रंथों का भी भव्य जीवों में वितरण करना चाहिए। ध्वजा, कलश, घण्टा, घण्टिका, दर्पण, स्वस्तिक आदि से मंदिर को भूषित करके महापूजा के अनंतर चतुर्विध संघ को आहार आदि चार प्रकार का दान और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र का दान देना चाहिए। इस तरह गुरुमुख से सुनकर विधिवत् व्रत ग्रहणकर पूतिगंधा ने उसका पालन किया। श्रावक व्रत पालन करते हुए अंत में समाधिपूर्वक मरण करके वह अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में महादेवी हो गई। वहाँ से च्युत होकर यह तुम्हारी वल्लभा रोहिणी हुई है। राजन् यह रोहिणी व्रत का ही माहात्म्य है जो कि यह ‘शोक और ‘दु:ख को नहीं समझ पाई है। अनन्तर मुनिराज ने अशोक से कहा-अब मैं तुम्हारे पूर्वजन्म सुनाता हूँ सो एकाग्रचित्त होकर सुनो। कलिंग देश के निकट वध्याचल पर्वत पर अशोक वन में स्तंबकारी और श्वेतकारी नाम के दो मदोन्मत्त हाथी थे। किसी एक दिन नदी में जल के लिए घुसे और आपस में लड़कर मर गये। वे बिलाव और चूहा हुए, पुन: साँप-नेवला और बाज—बगुला हुए, पुन: दोनों ही कबूतर हुए। अनन्तर कनकपुर के राजा सोमप्रभ के पुरोहित सोमभूमि की पत्नी सोमिला से सोमशर्मा और सोमदत्त नाम के पुत्र हो गये। राजा सोमप्रभ ने सोमभूमि के मरने के बाद पुरोहित पद सोमदत्त नामक उनके छोटे पुत्र को दे दिया। किसी समय सोमदत्त को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई मेरी पत्नी के साथ दुराचार करता है, तब उसने विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इधर राजा ने पुरोहित पद सोमशर्मा को दे दिया। एक बार सोमप्रभ राजा ने हाथी के लिए शकट देश के अधिपति वसुपाल के साथ युद्ध करने के लिए प्रस्थान कर दिया। उस समय सोमदत्त मुनि के दर्शन होने से सोमशर्मा ने कहा-महाराज! आपको अपशकुन हो गया है अत: इन मुनि को मारकर इनके खून को दशों दिशाओं में क्षेपण कर शांतिकर्म करना चाहिए। यह सुनकर राजा ने अपने कान दोनों हाथों से ढ़क लिए। तब विश्वसेन नामक निमित्तज्ञानी ने आकर बतलाया-राजन्! आपको आज बहुत ही उत्तम शकुन हुआ है। देखिए! ‘‘यति, घोड़ा, हाथी, बैल, कुम्भ, ये चीजें प्रस्थान और प्रवेश में सिद्धिसूचक मानी गई हैं’।b q अन्यत्र भी कहा है- आरुरोह रथं पार्थ! गांडीवं चापि धारय! निर्जितां मेदिनां मन्ये निर्ग्रन्थो यतिरग्रत:।। महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन! तुम रथ पर चढ़ जाओ और धनुष धारण कर लो। सामने निग्र्रन्थ मुनिराज के दर्शन हो रहे हैं, इसलिए मैं समझता हॅूँ कि अब हमने पृथ्वी जीत ली। हमारी विजय निश्चित है। ज्योतिष शास्त्र में भी एक सुभाषित है- पद्मिन्यो राजहंसाश्च निग्र्रन्थाश्च तपोधना:। यद्देशमभिगच्छन्ति तद्देशे शुभमादिशेत्। पद्मिनी स्त्रियां, राजहंस और निर्ग्रन्थ तपस्वी जिस प्रदेश में रहते हैं, उस प्रदेश में सर्वत्र मंगल रहता है। अन्यत्र धर्मग्रन्थों में भी ‘साधु के दर्शन से पापों का नाश हो जाता है’ ऐसा कहा गया है। राजन्! आप देखिए, प्रात: ही राजा वसुपाल त्रिलोकसुन्दर हाथी लाकर आपको भेंट करेगा। विश्वसेन के वचनों से राजा का मन शान्त हो गया पुन: प्रात:काल स्वयं वसुपाल राजा ने आकर वह हाथी सहर्ष भेंट कर दिया। इधर सोमशर्मा ने पूर्व वैर के कारण रात्रि में सोमदत्त मुनि की हत्या कर दी। जब राजा को इस बात का पता चला तब पाँच प्रकार के दण्डों से दण्डित किया। मुनि हत्या के पास से सोमशर्मा को कुष्ठ रोग हो गया और वह मरकर सातवें नरक पहुँच गया। वहाँ से निकलकर महामत्स्य हुआ, छठे नरक गया, सिंह हुआ, पाँचवे नरक गया, सर्प हुआ, चतुर्थ नरक गया, पक्षी हुआ, द्वितीय नरक गया-बगुला हुआ, पुन: प्रथम नरक गया। वहाँ से निकलकर सिंहपुर के राजा सिंहसेन की रानी से पूतिगंध नाम का महादुर्गन्ध शरीरधारी पुत्र हुआ। किसी समय विमलमदन जिनराज को केवलज्ञान होने पर देवों के आगमन को देखकर पूतिगंध मूच्र्छित हो गया। पुन: होश में आने पर उसे जातिस्मरण हो गया। वह पिता के साथ केवली भगवान का दर्शन करके मनुष्यों की सभा में बैठ गया। राजा ने पूतिगंध के पूर्व भव पूछे और पूर्वोक्त प्रकार विशेष स्पष्टतया जिनेन्द्र की वाणी से अपने भवांतरों को सुनकर पूतिगंध ने कहा-प्रभो! अब मुझे दु:खों से छूटने के लिए कोई व्रतादि बतलाइये, तब भगवान ने उसे रोहिणी व्रत का उपदेश दिया। इस व्रत में तीन साल में चालीस उपवास होते हैं और पाँच वर्ष नव दिन में सरसठ उपवास होते हैं। अनंतर विधिवत् उद्यापन करना चाहिए। पूतिगंध राजकुमार इस व्रत और अणुव्रत आदि के प्रभाव से उसी भव में सुगंध शरीर वाला हो गया। अनंतर एक महीने में ही सल्लेखना विधि से मरण करके प्राणत नामक स्वर्ग में महर्द्धिक देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर पूर्वविदेह में पुंडरीकिणी नगरी के विमलकीर्ति राजा की श्रीमती रानी से अर्ककीर्ति नाम का पुत्र हो गया। आगे जाकर अककीर्ति ने महावैभव स्वरूप चक्रवर्ती के पद को प्राप्त किया, अमित सुखों का अनुभव करके विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अंत में मरणकर सोलहवें स्वर्ग में देवपद को प्राप्त किया। उस समय पूतिगंधा का जीव जो कि रोहिणी व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में देवी हुई थी, वह इस देव की प्रिय देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर आप अशोक राजा हुए हैं। इस प्रकार मुनिराज के मुख से भवांतरों को सुनकर राजा-रानी अति प्रसन्न हुए और सभी पुत्र-पुत्रियों के भव पूछकर हर्षितमना अपने शहर वापस आ गये। एक समय श्वेत केश को देखकर विरक्त होकर राजा अशोक ने वासुपूज्य भगवान के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और सात ऋद्धि से सम्पन्न हुए भगवान के गणधर हो गये। अनन्तर मोक्ष को पधार गये। रोहिणी भी सुमति आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा लेकर स्त्री पर्याय को छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देव हो गई।
Jainism advocates a lot of vrats as part of an involved spiritual life. Rohini Vrat is one such vrat very popularly observed by the women in Jain households. Rohini Vrat is observed when the Rohini Nakshatra rises in the sky once in every 27 days. The procedure for observing Rohini Vrat is very simple since it is meant for women who cannot undergo rigorous sadhana.
On the day of Rohini, the women wake up early in the morning and take a holy bath. They set up an idol or photograph of one of the Jain Bhagwans namely Vasupujya. An elaborate puja is performed with a holy bath to the idol and offerings are made. At the end of the puja, the ladies start the fasting process that stretches up to the rise of next star namely Margashirsha Nakshatra.
Lord Mahavir lived the life of an ascetic. He advocated non-violence as the primary duty of all men and women. Being heralded as the founder of Jainism, Lord Mahavir was preceded by twenty three holy men called as Tirtankaras or path finders who all lived the lives of ascetics and were engaged in severe spiritual sadhana. Lord Mahavir strongly advocated that only when an individual crosses his attachment to the physical body, can he attain self-realization, which is the final culmination of human birth.
Jainism advocates a very severe ascetic life of complete renunciation for those who give up worldly pleasures and commit themselves to spiritual life. For those in the regular household life, strict observances are not a mandate. They can follow the commandments of Jainism and live a normal life however without giving themselves away to over indulgence. Amidst this background, Rohini Vrat is prescribed for the women in the Jain community as a spiritual practice.
The ultimate benefits of Rohini vrat are considered to be the happiness and prosperity of the household and the inmates of the family, long life of the husband and relief from the troubles of life. It is said that if the women in the Jain households observe this vrat with all sincerity and diligence, then peace and tranquility will rule over the household.
A large number of devout Jain women observe Rohini Vrat continuously. They also give out many things in charity during the vrat to please Bhagvan Vasupuja and win his blessings. In many households, the women alone observe this vrat while the normal life goes on for the others in the family.
The Nakshatras system in the Hindu and Jain astrological systems are very much same. In a typical year, one comes across twelve Rohini vrat days. The observance of Rohini vrat is advocated continuously for three, five or seven years. Therefore, once they take up, the women in Jain households continue this vrat for such a long period. The ideal duration advised for the observance of Rohini vrat is five years and five months. At the end of the Rohini fasting, the recommended Udyapana (the mode of conclusion) is feeding the poor, visiting the temple of Bhagvan Vasupuja and performing charity deeds.
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