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Jivitputrika vrat katha

It is said that this fast, which is done for the good health and longevity of the son, is mainly done in Bihar and parts of Uttar Pradesh. In such a situation, today we are going to tell you a story about it, which you must listen to on this day. Let's know the second story of this fast.

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है. संक्षेप में वह इस प्रकार है – गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बडे उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड की

बलि का दिन है. जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड बडे वेग सेआए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर परजाकर बैठ गए. अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से 

आह निकलता न देखकर गरुडजी बडे आश्चर्य में पड गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.

आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.

There was a prince of Gandharvas whose name was 'Jeemutavahana'. He was very generous and benevolent. He got power at a very young age but he did not approve of it. His mind did not seem to be in the royal party. In such a situation, he left the state and went to the forest to serve his father. At the same time, he was married to a Rajakanya named Malayavati.

One day while traveling in the forest, Jemutavahana saw the old woman moaning. He could not stand it and asked the old lady the reason for his grief. On this, the old lady said, 'I am a woman of Nagavansh and I have only one son. It has been pledged to hand a snake in front of Pakshiraj Garuda to eat daily, according to which today is the day to send my son 'Shankhchud'.

You tell me, my only son has climbed the sacrifice, then I will spend my life on whose support. Hearing this, Jeemutavahana was heartbroken. He said that he will protect his son's life. Jemutavahana said that he would cover himself in a red cloth and lie down on the slaughter instead of the son of that woman. Jemutavahana did the same. At the right time, Birdsraj reached Garuda and he caught the Jeemutavahana covered in red cloth in his paws and sat on the top of the mountain.

Garudji was surprised to see that he who has arrested him in his clutches is not coming out of his eyes and tears from his mouth. This was the first time. Finally, Garudji asked Jemutavahana to introduce him. When asked, Jemutavahana told all his things that happened to that old lady. Birds Raj Garuda was shocked. He could not believe that anyone could give such a sacrifice for the help of anyone.

Garudji was very happy to see this bravery and gave life to Jemutavahana. At the same time, he also talked about not taking a sacrifice of serpents in the future. Thus the son of a mother was protected. It is believed that since then the Jemutavahana is worshiped for the protection of the son.

 

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